सोमवार, 23 अप्रैल 2007

सोचता हूँ

सोचता हूँ, समय से पहले,
ईसा को शूली, सुकरात को विष,
आजाद, गॉधी को गोली,
खुदी, भगत को फांसी क्यों मिली?
क्या वे पागल थे?
सामान्य स्तर से ऊँचा
या ऊससे नीचा,
सोचना पागलपन ही तो है।
यदि वे जीवन के सामान्य मूल्यों को,
घृणा, ईषर्या, द्वेष, ऊँच-नीच की भावना
को समझ लेते,
तो शायद कुछ दिन और जी लेते।।

मंगलवार, 10 अप्रैल 2007

अल्पमत में न्याय: सरकार बनाम न्यायपालिका

जब भारत स्वतंत्र हुआ था और हमारे पूर्वजों ने लोकतांत्रिक व्यवस्था के पक्ष में निर्णय लिया था तो बहुत सारे लोगों को संदेह था की भारत की जनता में लोकतांत्रिक परिपक्वता नहीं है और दूरदर्शी नेतृत्व के अभाव में हमारा लोकतन्त्र भीड़ तंत्र में बदल सकता है लेकिन सौभाग्य से दुनिया के सबसे लंबे लिखित संविधान ने लोकतंत्र के विभिन्न स्तंभों के बीच शक्तियों के वितरण की व्यवस्था की ताकि एक स्तम्भ कि कमज़ोरी को दूसरा संभाल सके और ज़रूरत पड़ने पर उसे ठीक भी कर सके। आज इतने वर्षों बाद, भारतीय लोकतंत्र पर नज़र डालने से लगता है कि अगर कोई अंग सही कार्य कर रहा है तो वह न्यायपालिका ही है विधायिका और न्यायपालिका कि साख तो भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों ने नीलाम कर दी है पर आम जनता आज भी न्यायपालिका को इन सबसे विश्वसनीय मानती है संविधान ने लोकलुभावन राजनीति या राजनैतिक पूर्वाग्रहों के चलते विधायिका के भटकने की स्थिति में उस पर लगाम कसने की दृष्टि से न्यायपालिका को न्यायिक समीक्षा का अधिकार दिया।

लोकतंत्र को आदर्श व्यवस्था मानने के पीछे यह मान्यता है कि बहुमत स्वाभाविक रुप से सत्य के पक्ष में होगा, किन्तु ऐसा सदैव नहीं होता। संविधान सभा की चर्चा के दौरान नेहरु ने कहा था कि यद्यपि लोकतन्त्र मे उन्हें पूरी आस्था है लेकिन वो यह नहीं मान सकते लोगों की बडी संख्या जो निर्णय ले वह हमेशा उचित ही होगा। एक बड़े वर्ग के फ़ायदे के लिए सख्यागत रूप से अल्पसंख्यक लोगों के मौलिक अधिकार नहीं छिने जा सकते, भले ही बहुमत इसके पक्ष में ही क्यों न हो। सत्ता के दुरुपयोग की संभावना भारत जैसे प्रतिनिधि लोकतन्त्र में और बढ़ जाती है, जहां विधान लोग नहीं बल्कि उनके चुने हुए प्रतिनिधि बनाते हैं। संसद कोई भी निर्णय ले ले तो सांसद उसे जनता की इच्छा बता कर उचित ठहराते हैं भले ही सामान्य जनता की राय उनसे इत्तेफ़ाक़ न रखती हो। जाहिर है ऐसी परिस्थितियों में एक स्वतन्त्र न्यायपालिका और सजग न्यायिक सक्रियता ही व्यवस्था को स्वस्थ बनाये रख सकती है। लेकिन हमारे प्रधान्मन्त्रीजी (और उनकी पूरी टोली) को न्यायपालिका द्वारा संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन नागवार गुजर रहा है। सीताराम येचुरीजी ने तो न्यायपालिका को जनविरोधी तक कह डाला। संसद की सर्वोच्चता के नाम पर न्यायिक समीक्षा के संवैधानिक प्रावधान को विधायिका के कार्य में हस्तक्षेप बताया जा रहा है।

दबे सुरों में न्यायपालिका का विरोध तो पहले से ही चलता आ रहा था लेकिन आरक्षण पर सर्वोच्च न्यायालय की रोक के बाद नेताओं की ख़ीज बढ़ गयी है। कुछ लोग कह रहे हैं कि आखिर जब ससद ने इसे सर्वसम्मति से पारित किया था तो कोर्ट कैसे रोक लगा सकती है। संसद जनता के प्रति जवाबदेह है जबकि कोर्ट नहीं। इस तर्क का खोखलापन कोर्ट के आदेश आने के अगले दिन विभिन्न समाचारपत्रों में पाठकों की प्रतिक्रियओं से स्पष्ट होता है, Hindustan Times, Telegraph, BBC, NDTV आदि विभिन्न माध्यमों पर लगभग नब्बे प्रतिशत लोगों का मानना था कि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय सही था। लेकिन किसी नेता ने न्यायालय की आपत्तियों को समझने की जरुरत नहीं समझी। क्या कोई इस तथ्य से असहमत हो सकता है कि आरक्षण के दायरे से क्रीमी लेयर को न हटाने की स्थिति में अवसरों की समानता का मौलिक अधिकार का उल्लंघन होता है और ऐसी स्थिति में कुछ लोगों को गैरवाज़िब लाभ मिलेगा। इतने वृहद प्रभाव वाले नीतिगत फ़ैसले को 70 साल पुराने औपनिवेशिक सर्वेक्षण के आधार पर कैसे निर्धारित किया जा सकता है।केन्द्र सरकार की उलूलजूलूल आरक्षण नीति पर न्यायालय के सवालों के बाद इस विषय पर राष्ट्रीय बहस का आरम्भ होना चाहिए था, सरकार को भी आत्ममंथन का अवसर मिला था, लेकिन किसी सकारात्मक शुरुआत की जगह सरकार न्यायपालिका से मोर्चा लेने को तैयार दिख रही है।कोर्ट के सामान्य प्रश्नों का उत्तर देने की बजाय सरकार 'संसद सर्वदा उचित होती है' के अड़ियल रुख पर अड़ी रही।

आरक्षण के अलावा पिछले दिनों कुछ और ऐसे मुद्दे रहे जिनके कारण सरकार न्यायपालिका से भिड़ी हुई है जैसे- दागी मन्त्रियों को न शामिल करने के सुप्रीम कोर्ट के सुझाव को सरकार ने यह कह कर अस्वीकार कर दिया कि गठबन्धन के युग में ऐसे कदमों से सरकार अस्थिर हो सकती है। बांग्लादेशी घुसपैठियों के प्रति नरम रुख अपनाने और अवैधानिक आव्रजन कानून में सशोधन पर भी सुप्रीम कोर्ट सरकार को फ़टकार लगा चुका है। चूँकि ये मसला राष्ट्रीय सुरक्षा से सम्बन्धित था, सरकार उस वक्त बचाव की मुद्रा में आ गयी थी। आज स्थिति दूसरी है- न्यायपालिका राष्ट्रहित की ओर तो है, लेकिन दूसरे पक्ष में सस्ती लोकप्रियता('?'कम से कम अर्जुन सिंह एण्ड कंपनी यही सोचती है) है,इस लिए मनमोहनजी भी न्यायपालिका को नसीहत देने की स्थिति में आ गये हैं। दीगर बात है कि हम और आप उनसे असहमत हैं,पर ससद उनके साथ है,बहुमत उनके साथ है अतः उन्हें लगता कि वो जो बोल देंगे वही सही हो जायेगा।

आदर्श विहीन राजनीति के इस युग में आम आदमी ऐसे ही अनमना है,अगर न्यायपालिका की संस्था पर चोट किया गया तो लोकतन्त्र में जनता की बची खुची निष्ठा भी चल बसेगी।