मंगलवार, 10 अप्रैल 2007

अल्पमत में न्याय: सरकार बनाम न्यायपालिका

जब भारत स्वतंत्र हुआ था और हमारे पूर्वजों ने लोकतांत्रिक व्यवस्था के पक्ष में निर्णय लिया था तो बहुत सारे लोगों को संदेह था की भारत की जनता में लोकतांत्रिक परिपक्वता नहीं है और दूरदर्शी नेतृत्व के अभाव में हमारा लोकतन्त्र भीड़ तंत्र में बदल सकता है लेकिन सौभाग्य से दुनिया के सबसे लंबे लिखित संविधान ने लोकतंत्र के विभिन्न स्तंभों के बीच शक्तियों के वितरण की व्यवस्था की ताकि एक स्तम्भ कि कमज़ोरी को दूसरा संभाल सके और ज़रूरत पड़ने पर उसे ठीक भी कर सके। आज इतने वर्षों बाद, भारतीय लोकतंत्र पर नज़र डालने से लगता है कि अगर कोई अंग सही कार्य कर रहा है तो वह न्यायपालिका ही है विधायिका और न्यायपालिका कि साख तो भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों ने नीलाम कर दी है पर आम जनता आज भी न्यायपालिका को इन सबसे विश्वसनीय मानती है संविधान ने लोकलुभावन राजनीति या राजनैतिक पूर्वाग्रहों के चलते विधायिका के भटकने की स्थिति में उस पर लगाम कसने की दृष्टि से न्यायपालिका को न्यायिक समीक्षा का अधिकार दिया।

लोकतंत्र को आदर्श व्यवस्था मानने के पीछे यह मान्यता है कि बहुमत स्वाभाविक रुप से सत्य के पक्ष में होगा, किन्तु ऐसा सदैव नहीं होता। संविधान सभा की चर्चा के दौरान नेहरु ने कहा था कि यद्यपि लोकतन्त्र मे उन्हें पूरी आस्था है लेकिन वो यह नहीं मान सकते लोगों की बडी संख्या जो निर्णय ले वह हमेशा उचित ही होगा। एक बड़े वर्ग के फ़ायदे के लिए सख्यागत रूप से अल्पसंख्यक लोगों के मौलिक अधिकार नहीं छिने जा सकते, भले ही बहुमत इसके पक्ष में ही क्यों न हो। सत्ता के दुरुपयोग की संभावना भारत जैसे प्रतिनिधि लोकतन्त्र में और बढ़ जाती है, जहां विधान लोग नहीं बल्कि उनके चुने हुए प्रतिनिधि बनाते हैं। संसद कोई भी निर्णय ले ले तो सांसद उसे जनता की इच्छा बता कर उचित ठहराते हैं भले ही सामान्य जनता की राय उनसे इत्तेफ़ाक़ न रखती हो। जाहिर है ऐसी परिस्थितियों में एक स्वतन्त्र न्यायपालिका और सजग न्यायिक सक्रियता ही व्यवस्था को स्वस्थ बनाये रख सकती है। लेकिन हमारे प्रधान्मन्त्रीजी (और उनकी पूरी टोली) को न्यायपालिका द्वारा संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन नागवार गुजर रहा है। सीताराम येचुरीजी ने तो न्यायपालिका को जनविरोधी तक कह डाला। संसद की सर्वोच्चता के नाम पर न्यायिक समीक्षा के संवैधानिक प्रावधान को विधायिका के कार्य में हस्तक्षेप बताया जा रहा है।

दबे सुरों में न्यायपालिका का विरोध तो पहले से ही चलता आ रहा था लेकिन आरक्षण पर सर्वोच्च न्यायालय की रोक के बाद नेताओं की ख़ीज बढ़ गयी है। कुछ लोग कह रहे हैं कि आखिर जब ससद ने इसे सर्वसम्मति से पारित किया था तो कोर्ट कैसे रोक लगा सकती है। संसद जनता के प्रति जवाबदेह है जबकि कोर्ट नहीं। इस तर्क का खोखलापन कोर्ट के आदेश आने के अगले दिन विभिन्न समाचारपत्रों में पाठकों की प्रतिक्रियओं से स्पष्ट होता है, Hindustan Times, Telegraph, BBC, NDTV आदि विभिन्न माध्यमों पर लगभग नब्बे प्रतिशत लोगों का मानना था कि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय सही था। लेकिन किसी नेता ने न्यायालय की आपत्तियों को समझने की जरुरत नहीं समझी। क्या कोई इस तथ्य से असहमत हो सकता है कि आरक्षण के दायरे से क्रीमी लेयर को न हटाने की स्थिति में अवसरों की समानता का मौलिक अधिकार का उल्लंघन होता है और ऐसी स्थिति में कुछ लोगों को गैरवाज़िब लाभ मिलेगा। इतने वृहद प्रभाव वाले नीतिगत फ़ैसले को 70 साल पुराने औपनिवेशिक सर्वेक्षण के आधार पर कैसे निर्धारित किया जा सकता है।केन्द्र सरकार की उलूलजूलूल आरक्षण नीति पर न्यायालय के सवालों के बाद इस विषय पर राष्ट्रीय बहस का आरम्भ होना चाहिए था, सरकार को भी आत्ममंथन का अवसर मिला था, लेकिन किसी सकारात्मक शुरुआत की जगह सरकार न्यायपालिका से मोर्चा लेने को तैयार दिख रही है।कोर्ट के सामान्य प्रश्नों का उत्तर देने की बजाय सरकार 'संसद सर्वदा उचित होती है' के अड़ियल रुख पर अड़ी रही।

आरक्षण के अलावा पिछले दिनों कुछ और ऐसे मुद्दे रहे जिनके कारण सरकार न्यायपालिका से भिड़ी हुई है जैसे- दागी मन्त्रियों को न शामिल करने के सुप्रीम कोर्ट के सुझाव को सरकार ने यह कह कर अस्वीकार कर दिया कि गठबन्धन के युग में ऐसे कदमों से सरकार अस्थिर हो सकती है। बांग्लादेशी घुसपैठियों के प्रति नरम रुख अपनाने और अवैधानिक आव्रजन कानून में सशोधन पर भी सुप्रीम कोर्ट सरकार को फ़टकार लगा चुका है। चूँकि ये मसला राष्ट्रीय सुरक्षा से सम्बन्धित था, सरकार उस वक्त बचाव की मुद्रा में आ गयी थी। आज स्थिति दूसरी है- न्यायपालिका राष्ट्रहित की ओर तो है, लेकिन दूसरे पक्ष में सस्ती लोकप्रियता('?'कम से कम अर्जुन सिंह एण्ड कंपनी यही सोचती है) है,इस लिए मनमोहनजी भी न्यायपालिका को नसीहत देने की स्थिति में आ गये हैं। दीगर बात है कि हम और आप उनसे असहमत हैं,पर ससद उनके साथ है,बहुमत उनके साथ है अतः उन्हें लगता कि वो जो बोल देंगे वही सही हो जायेगा।

आदर्श विहीन राजनीति के इस युग में आम आदमी ऐसे ही अनमना है,अगर न्यायपालिका की संस्था पर चोट किया गया तो लोकतन्त्र में जनता की बची खुची निष्ठा भी चल बसेगी।

2 टिप्‍पणियां:

Srijan Shilpi ने कहा…

बहुत अच्छा लिखा है आपने। संवैधानिक संस्थाओं के बीच शक्तियों और कार्यक्षेत्र का स्पष्ट विभाजन और उनके बीच संतुलन भी अत्यंत जरूरी है और भारत के संविधान में इसे सुनिश्चित किया गया है। यह शक्ति संतुलन भी संविधान के मूलभूत ढांचे के अंतर्गत आता है।

लोकतंत्र के तीनों स्तंभों की शक्तियों का स्रोत संविधान है और संविधान सर्वोच्च है। लेकिन संवैधानिक संस्थाओं की शक्तियों से भी बड़ी एक शक्ति है, जिसे संप्रभुता कहते हैं और वह शक्ति भारत की जनता के पास है। विधायिका और कार्यपालिका पर अंकुश रखने का दायित्व और अधिकार न्यायपालिका के पास है, लेकिन यदि कभी न्यायपालिका का विवेक किसी कारण से जनता के व्यापक हितों से भटक जाए तब जनता की संप्रभुता शक्ति सक्रिय हो सकती है। लोकतंत्र में सर्वशक्तिमान जनता है। जनता के पास अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जनांदोलन का विकल्प है। ऐसा पहले भी हो चुका है जब न्यायालय ने भी अपने कर्तव्य का पालन करने में चूक की। आपातकाल के समय न्यायपालिका की न्यायिक समीक्षा की शक्ति काम नहीं आई थी, जनमत के दबाव के कारण ही सरकार को आपातकाल खत्म करना पड़ा था। जनता में न्यायपालिका की निष्पक्षता के प्रति भरोसा जब तक कायम है, तभी तक न्यायिक समीक्षा की शक्ति का प्रभाव रहेगा। लेकिन न्यायिक सक्रियता जब अपनी हद का अतिक्रमण करेगी तो फिर जनता की संप्रभुता शक्ति सक्रिय हो जाएगी। परिस्थितियाँ उत्पन्न होने पर जनता चाहे तो संविधान को भी बदल सकती है।

भारत के मुख्य न्यायाधीश मानते हैं कि संवैधानिक शक्तियों के बीच टकराव स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है। लेकिन यह टकराव उनके अहंकार का प्रश्न नहीं बनना चाहिए। यदि विधायिका और कार्यपालिका का ईमानदारी से सहयोग न मिले तो न्यायपालिका अपने आदेशों का कार्यान्वयन सुनिश्चित नहीं करा सकती।

न्यायाधीश मनुष्य ही होते हैं, ईश्वर द्वारा भेजे गए फरिश्ते नहीं। न्यायपालिका के प्रति पूर्ण सम्मान रखने के बावजूद यह ध्यान दिलाना जरूरी है कि न्यायाधीश वेतनभोगी न्याय विशेषज्ञ से अधिक कुछ नहीं होते। उनका पद उनकी विशेष योग्यता और ईमानदारी पर निर्भर है। उनके निर्णय मानवीय विकारों से पूर्णतया अछूते हों, यह जरूरी नहीं। संवैधानिक महत्व के मुद्दों पर बहुत से निर्णयों में उच्चतम न्यायालय के न्यायधीश आपस में एकमत नहीं होते। कई बार उन्हें अपने ही निर्णयों में विसंगति नजर आती है और वे पिछले निर्णय को बदलते भी रहे हैं। किसी विवाद या प्रश्न पर विचार करने और अंतिम निर्णय तक पहुंचने की न्यायपालिका में एक प्रक्रिया होती है। उस प्रक्रिया को पूरा होने दीजिए।

आज यह सवाल भी उठने लगा है कि केवल कुछ न्यायाधीश सौ करोड़ से भी अधिक जनता के अंतिम भाग्य-विधाता कैसे हो सकते हैं। ऐसे अवसरों पर लॉर्ड एक्टन की यह प्रसिद्ध उक्ति अक्सर याद आती है कि 'Power corrupts, and absolute power corrupts absolutely'.

विशाल सिंह ने कहा…

@ srijanshi shilpi
सृजनशिल्पीजी
लेख पर टिप्पणी देने और उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद।
आपने बिलकुल सही कहा कि न्यायाधीश भी मनुष्य हैं और उनकी क्षमता व्यक्तिगत ईमानदारी और निष्ठा पर निर्भर है। जब बाकी स्तंभों के साथ साथ वो भी गलत हों जाएं तो जनता की संप्रभुता राह दिखायेगी। जनता में उसकी संप्रभु शक्ति के बारे में चेतना फैलाने की आवश्यकता है। यह काम लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया का है, लेकिन कई बार वो भी गुटबाजी में भिडा रहता है। ब्लॉग जगत इस संदर्भ में एक आदर्श विकल्प है।