tag:blogger.com,1999:blog-5714441622345375226.post3825198819144975140..comments2023-08-14T21:02:32.841+05:30Comments on अनहद: अल्पमत में न्याय: सरकार बनाम न्यायपालिकाविशाल सिंहhttp://www.blogger.com/profile/09223766680957676922noreply@blogger.comBlogger2125tag:blogger.com,1999:blog-5714441622345375226.post-10505611473569687182007-04-11T20:51:00.000+05:302007-04-11T20:51:00.000+05:30@ srijanshi shilpiसृजनशिल्पीजीलेख पर टिप्पणी देने ...@ srijanshi shilpi<BR/>सृजनशिल्पीजी<BR/>लेख पर टिप्पणी देने और उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद।<BR/>आपने बिलकुल सही कहा कि न्यायाधीश भी मनुष्य हैं और उनकी क्षमता व्यक्तिगत ईमानदारी और निष्ठा पर निर्भर है। जब बाकी स्तंभों के साथ साथ वो भी गलत हों जाएं तो जनता की संप्रभुता राह दिखायेगी। जनता में उसकी संप्रभु शक्ति के बारे में चेतना फैलाने की आवश्यकता है। यह काम लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया का है, लेकिन कई बार वो भी गुटबाजी में भिडा रहता है। ब्लॉग जगत इस संदर्भ में एक आदर्श विकल्प है।विशाल सिंहhttps://www.blogger.com/profile/09223766680957676922noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5714441622345375226.post-9827927178107947182007-04-11T12:01:00.000+05:302007-04-11T12:01:00.000+05:30बहुत अच्छा लिखा है आपने। संवैधानिक संस्थाओं के बीच...बहुत अच्छा लिखा है आपने। संवैधानिक संस्थाओं के बीच शक्तियों और कार्यक्षेत्र का स्पष्ट विभाजन और उनके बीच संतुलन भी अत्यंत जरूरी है और भारत के संविधान में इसे सुनिश्चित किया गया है। यह शक्ति संतुलन भी संविधान के मूलभूत ढांचे के अंतर्गत आता है। <BR/><BR/>लोकतंत्र के तीनों स्तंभों की शक्तियों का स्रोत संविधान है और संविधान सर्वोच्च है। लेकिन संवैधानिक संस्थाओं की शक्तियों से भी बड़ी एक शक्ति है, जिसे संप्रभुता कहते हैं और वह शक्ति भारत की जनता के पास है। विधायिका और कार्यपालिका पर अंकुश रखने का दायित्व और अधिकार न्यायपालिका के पास है, लेकिन यदि कभी न्यायपालिका का विवेक किसी कारण से जनता के व्यापक हितों से भटक जाए तब जनता की संप्रभुता शक्ति सक्रिय हो सकती है। लोकतंत्र में सर्वशक्तिमान जनता है। जनता के पास अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जनांदोलन का विकल्प है। ऐसा पहले भी हो चुका है जब न्यायालय ने भी अपने कर्तव्य का पालन करने में चूक की। आपातकाल के समय न्यायपालिका की न्यायिक समीक्षा की शक्ति काम नहीं आई थी, जनमत के दबाव के कारण ही सरकार को आपातकाल खत्म करना पड़ा था। जनता में न्यायपालिका की निष्पक्षता के प्रति भरोसा जब तक कायम है, तभी तक न्यायिक समीक्षा की शक्ति का प्रभाव रहेगा। लेकिन न्यायिक सक्रियता जब अपनी हद का अतिक्रमण करेगी तो फिर जनता की संप्रभुता शक्ति सक्रिय हो जाएगी। परिस्थितियाँ उत्पन्न होने पर जनता चाहे तो संविधान को भी बदल सकती है। <BR/><BR/>भारत के मुख्य न्यायाधीश मानते हैं कि संवैधानिक शक्तियों के बीच टकराव स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है। लेकिन यह टकराव उनके अहंकार का प्रश्न नहीं बनना चाहिए। यदि विधायिका और कार्यपालिका का ईमानदारी से सहयोग न मिले तो न्यायपालिका अपने आदेशों का कार्यान्वयन सुनिश्चित नहीं करा सकती। <BR/><BR/>न्यायाधीश मनुष्य ही होते हैं, ईश्वर द्वारा भेजे गए फरिश्ते नहीं। न्यायपालिका के प्रति पूर्ण सम्मान रखने के बावजूद यह ध्यान दिलाना जरूरी है कि न्यायाधीश वेतनभोगी न्याय विशेषज्ञ से अधिक कुछ नहीं होते। उनका पद उनकी विशेष योग्यता और ईमानदारी पर निर्भर है। उनके निर्णय मानवीय विकारों से पूर्णतया अछूते हों, यह जरूरी नहीं। संवैधानिक महत्व के मुद्दों पर बहुत से निर्णयों में उच्चतम न्यायालय के न्यायधीश आपस में एकमत नहीं होते। कई बार उन्हें अपने ही निर्णयों में विसंगति नजर आती है और वे पिछले निर्णय को बदलते भी रहे हैं। किसी विवाद या प्रश्न पर विचार करने और अंतिम निर्णय तक पहुंचने की न्यायपालिका में एक प्रक्रिया होती है। उस प्रक्रिया को पूरा होने दीजिए।<BR/><BR/>आज यह सवाल भी उठने लगा है कि केवल कुछ न्यायाधीश सौ करोड़ से भी अधिक जनता के अंतिम भाग्य-विधाता कैसे हो सकते हैं। ऐसे अवसरों पर लॉर्ड एक्टन की यह प्रसिद्ध उक्ति अक्सर याद आती है कि 'Power corrupts, and absolute power corrupts absolutely'.Srijan Shilpihttps://www.blogger.com/profile/09572653139404767167noreply@blogger.com