मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

रात


कुछ बीती है तारीख अभी तक इस तरह,
खुशी देख के भी खुश होने से डर लगता है।
भरोसा अंधेरे में नहीं है खुद अपनी नजर का
साये के साथ भी रोशनी का खेल चलता है।

स्याह पहरा सुर्ख रंग पर हर पहर चढ़ता है,
सहर हो तो भी शाम का ही मंजर रहता है।
कट जाए रात, गर सबर चांद के दीदार का हो,
नजर आए तो फिर छिप जाने का डर लगता है।

रात लंबी है, सिर्फ सो के बिता दूँ कैसे?
दर्द इतना है, रो रो के भूला दूँ कैसे?
बंद आखों में भी आते हैं ख्वाब अंधेरों के
नम आखों में फिर सपने सजा लूँ कैसे?

जंग हालात से हो तो फिर भिड़ पड़ूं दम भर पर
चढ़ाई वक्त पर किस तरफ, किस घड़ी कर लूँ।
विदाई होनी है जिसकी खुद खुदा के मन से
लड़ाई कैसे तख्त-ए-वक्त से आप ही लड़ लूँ।


चलो अब दर्द से ही कर के कुछ बात
चलो फिर रात से भी अपनी दोस्ती कर लूँ।
सुबह होगी कभी, जब भी हो, ये है मालूम
उसके आने तक क्यों ना कुछ तसल्ली कर लूँ।।

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