कल का दिन भारतीय संसद के उन गिने चुने दिनों में था जब सारे नेतागण आम सहमति से काम करते हैं। पिछले कुछ सालों में ऐसा कुछेक बार ही हुआ है। पहले सांसदों के वेतन बढाने का मामला था, न्यायपालिका की सक्रियता का मसला था और लाभ के पद वाला विधेयक था। जब सारे देश में आरक्षण पर सार्थक चर्चा चल रही थी और शिक्षाविदों तथा छात्रों में आरक्षण के प्रारुप में परिवर्तन के लिये सहमति थी, यहॉ तक की खुद संसद की स्थायी समिति ने मूल विधेयक में परिवर्तन का प्रस्ताव किया था। सरकार ने आश्चर्यजनक फुर्ती का परिचय देते हुए तुरत फुरत मे विधेयक पास करा लिया। बात बात पर टॉंग अडाने वाले विपक्षी दलों ने भी पुरा समर्थन दिया, वरना शायद कहीं पिछडा विरोधी होने का चस्पा लग जाता तो। खुद को गरीबों के हिमायती मानने वाले और सिद्धांततः जाति की जगह वर्ग में विश्वास रखने वाले वामपंथीयों ने क्रीमीलेयर तक को आरक्षण की परिधि में लाने पर चू तक नहीं की। गरीबी की कोई जाति नहीं होती लेकिन भारतीय परिवेश मे मतों की तो होती है।
लोकलुभावन राजनीति और जातिवादी समीकरणों के इस युग में सही गलत की किसे चिन्ता है। आरक्षण लागू होने के वर्षों बाद भी सभी जातियों के करोंडो गरीब आज भी प्राथमिक शिक्षा का मुँह नहीं देख पाते, लाभ उन्हीं को मिलता है जिनके माता पिता पहले से ही समर्थ होते हैं। सरकार लोगों के प्रति अपने कर्तव्यों की विफलता को आरक्षण के माध्यम से ढकना चाहती है। संविधान सभा में आरक्षण पर काफी चर्चा हुई थी, नेहरु और अम्बेडकर दोनों ने इसका विरोध किया था। एक जातिविहीन, भेदविहीन समाज की रचना आरक्षण से कभी नहीं की जा सकती। अम्बेडकर दलितों को अवसर की समानता दिलाना चाहते थे, उपर से थोपी हुई भीख में मिली बैसाखी नहीं। उनका मानना था, कि अगर कोई जाति के कारण किसी पद तक पहुँचता है तो उसे सहकर्मियों और समाज से वो मान्यता और सम्मान नहीं मिल सकते जो योग्यता के कारण मिलते। दलितों का सशक्तिकरण सही रुप में होने के लिये बुनियादी स्तर पर सुधार की आवश्यकता है, न की गिने चुने लोगों को सौगात बॉटने की। खैर आरक्षण की व्यवस्था नीतिनियंताओं के विरोध के बावजूद मान ली गयी केवल दस वर्ष के लिये। शायद किसी को इसके आगे चलकर घातक बिमारी बनने की आशा न थी। पर आज के परिवेश को देखकर लगता है कि इस ग्रन्थि ने कितना विभत्स रुप धारण कर लिया है। हैरानी की बात ये है कि कभी न्याय और आदर्शों की बात करने वाला जनमानस भी इसे नियति मानकर चुप है।
दुर्भाग्य की बात है कि जब हमारा समाज, मुख्यतः युवा वर्ग जाति पात कि चेतना भूल रहा है और जातिगत भेदभाव पिछडेपन की निशानी माना जा रहा है, तब हमारे राजनेता इस भूत को जिन्दा करने की कोशिश में लगे हुए हैं। हों भी क्यों न भाई, अगर जातिगत भेद मिट गये तो वोट कैसे मिलेंगे? यह दुर्भाग्यपुर्ण सत्य है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में चुनाव जातिगत समीकरणों पर लडे जाते हैं, अगर जाति मुद्दा नहीं रही तो असल महत्व के मुद्दे जनता के सामने खडे हो जायेंगे। जनता विकास और नीतियों पर सवाल पूछने लगेगी, फिर राजनीतिज्ञों की दुकान कैसे चलेगी। अभी तो बडे बडे डाकू और लुटेरे, अपराधी सभी बिरादरी के नाम पर चुन लिये जाते हैं। यह तो नेताओं के हित में ही है कि जातियॉ बनी रहे, जनता पिछडी रहे और मन्दिर मस्जिद, अगडो-पिछडों के बीच बँटी रहे।
हमारे उत्तर प्रदेश में किसी जाति को पिछडी सूची में आना चुनाव से तय होता है, पिछले चुनाव में एक प्रभावशाली क्षेत्रीय जाति को प्रलोभन मिला था कि अगर एक क्षेत्र विशेष से एक पार्टी जितेगी तो उन्हें पिछडी सूची में स्थान मिलेगा। ऐसा हुआ भी, उस समुदाय के बहुत से धनपतियों के पुत्र आरक्षण का लाभ उठा रहे हैं। बहुत से विपन्न आरक्षित सूची में ना होने के कारण, छात्रवृत्ति तक से वंचित हैं।
अगर इमानदारी से देखा जाय तो, आरक्षित वर्गों को भी किंचित ही लाभ मिला है। उन वर्गों के गिने चुने मलाइदार लोग मजा उठा रहे हैं जबकि सकारात्मक प्रक्रिया के असल अधिकारी जस के तस हैं। मेरे अपने कॉलेज़ में और लगभग देश के सभी संस्थानों में फायदा उठाने वाले सम्पन्न परिवारों के लोग ही है। जब कमजोरी प्राथमिक स्तर पर है तो दिखावे वाले उपायों से क्या होगा अलबत्ता सामाजिक समरसता की बलि अवश्य चढ जायेगी। आज की युवा पीढी में जाति नामक शब्द पूछना अब असभ्य माना जाता है। पर जब हमारे आवेदनपत्रों और प्रमाणपत्रों में बार बार जाति का नाम लिखा जायेगा, हमारे गुण दोष पारिवारिक इतिहास से तौले जायेंगे तो जाति तो जिन्दा रहेगी ही।
शुक्रवार, 15 दिसंबर 2006
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4 टिप्पणियां:
दुभाग्य शायद इसी का नाम है.
आपने सही कहा:
"गरीबी की कोई जाति नहीं होती लेकिन भारतीय परिवेश मे मतों की तो होती है।"
और यही भारत का दूर्भाग्य है.
चिट्ठाजगत में दस्तक देकर कहाँ चले गए जनाब, आपकी अगली पोस्ट का इन्तजार है।
बधाई।
आज के समय में ऐसे ही सदविचारों की ज़रूरत है।
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