गुरुवार, 29 मार्च 2007

धर्म साम्प्रदायिकता और अध्यात्म

आज की दुनिया संक्रमण काल से गुजर रही है। जहाँ एक ओर तार्किक अनीश्वरवाद और आध्यात्मिक मानववाद तेजी से कट्टरपंथी मान्यताओं की जगह ले रहे हैं वहीँ धार्मिक असहिष्णुता और जेहादी आतंकवाद पहले से कहीँ ज्यादा उग्र रुप से सर उठा रहे हैं। दुःख तब होता है जब तथाकथित शिक्षित और धार्मिक लोग भी धर्म के विषय में एकांगी दृष्टिकोण रखते हैं, अपने पंथ की महानता और दुसरे को तुच्छ सिद्ध करने को अपना पुनीत कर्तव्य समझते हैं। कई बार लगता है कि अगर धर्म की यही अवधारणा है तो ऐसे धार्मिक लोगों की अपेक्षा नास्तिक होना लाख गुना अच्छा है।

अपने अस्तित्त्व के आरंभिक दिनों से मानव ने अनुभूत और दृष्ट जगत को परखने, जीवन के अर्थ को तलाशने और प्रकृति से संबंधों को समझने का प्रयास किया है। इन्हीं प्रयासों के परिणामस्वरूप धर्म की खोज (कुछ लोग इसे अविष्कार या बोध की संज्ञा देना चाहेंगे) हुई। स्वाभाविक रुप से भौतिक जगत के परे का विषय होने के कारण अलग अलग संस्कृतियों, जनों और परिवेशों मे धर्म और आध्यात्म की विवेचना अलग अलग तरीकों से हुई। विशेषकर हमारे भारतवर्ष में हम धार्मिक विचारों में विभिन्नतायें और विसंगतियों का समन्वय देख सकते हैं। ये विभिन्नतायें हजारों वर्षों से एक साथ रह रहीं हैं, इस सह-अस्तित्त्व ने हमारे सामाजिक जीवन मे मतभेदों को भी सम्मान से देखने और बहुआयामी दृष्टिकोण के विकास की प्रेणणा दी है। इसके विपरीत संकुचित सांप्रदायिक दृष्टिकोण घृणा और दक्षिणपंथी आक्रामकता को बढावा देता है। राष्ट्रपति कलाम का कहना है कि हमारे समाज को धर्म की जगह आध्यात्मिकता की ओर बढ़ाना चाहिऐ। आध्यात्म एक व्यापक शब्द है और शायद अध्यात्मिक मानववाद ही वह साझा धरातल है जहाँ सारे पंथ सहमति की ओर बढ़ाते हैं।

मैंने धर्म शब्द का प्रयोग मजहब या religion अर्थ में किया है, यद्यपि अधिकांश लोग धर्म कि इस व्याख्या से असहमत होंगेप्राचीन काल से ही धर्म का प्रयोग संप्रदाय या पंथ के अर्थ में करने कि बजाय अपेक्षित कर्तव्य के संदर्भ में किया जता रहा है, आज भी मित्र-धर्म, दांपत्य-धर्म और गठबंधन धर्म जैसे पदों में धर्म को इसी अर्थ में प्रयुक्त किया जाता हैइस अर्थ में धर्म भी आध्यात्म कि तरह एक व्यापक और वस्तुपरक शब्द है जो परिवर्तनशील और विकासशील होने के साथ साथ प्रत्यास्थ भी हैकिन्तु वर्त्तमान समय में विशेषकर राजनितिक संदर्भ में धर्म को मजहब या संप्रदाय का पर्यायवाची माना जाता हैइस लेख के परिप्रेक्ष्य में धर्म का प्रयोग मैंने मजहब के अर्थ में किया है, इसके शास्त्रीय अर्थ में नही

प्रश्न यह नहीं है कि ईश्वर है या नहीं, जिन्हे ईश्वर में विश्वास नहीं है वह तो ज्यादा से ज्यादा ऐसे विषयों कि निरर्थकता पर मुस्करा के अपनी राह चलते बनेंगे। पर जिन्हे इश्वर में विश्वाश है उन्हें तो उसकी सार्वभौमिकता पर भी भरोसा होना चाहिये। ऋग्वेद में कहा गया है "एकम् सद्विप्रा बहुधा वदन्ति "(सत्य एक ही है, विद्वान् उसे विभिन्न प्रकार से बताते है ) । सारे मार्ग एक ही ईश्वर को जाते हैं। अगर यह बात सबकी समझ मे आ जाती तो शायद इतना द्वेष और वैमनष्य ना रहता . एक सभ्य और सुसंस्कृत समाज में किसी भी संवेदनशील विषय कि विवेचना दृष्टिपरक ढंग से होनी चाहिये। पर विशेषकर धार्मिक मामलों में लोग निष्कर्ष पहले ही निकल लेते हैं और तर्क का प्रयोग केवल स्थापित मान्यताओं को जबरन सही सिद्ध करने के लिए होता है। मैंने आँर्कुट पर कई फोरम ऐसे देखे हैं। किसी भी धर्मं में कई ऐसी मान्यताएं होती हैं जिन्हे अंधविश्वास और पुर्वजों की अज्ञानता का प्रतिफल कह सकते हैं। विज्ञानं ने ऐसे तथ्यों की निराधारता असंदिग्ध रुप से सिद्ध कर दी है। इन साक्ष्यों के आलोक मे हमे धर्म के विकास के इतिहास , और धर्मग्रंथों के पुनरावलोकन की आवश्यकता प्रतीत होती है।
कोई भी विचारवान मनुष्य धर्मग्रंथों के मिथकों पर ईश्वर की वाणी मान कर विश्वास नहीं कर सकता। पर मेरे कुछ मुस्लिम दोस्त कुरान में लिखी एक एक बात को अल्लाह का कहा अन्तिम सत्य मनाते हैं, जिसमें परिवर्तन कि कोई गुंजाईश नहीं है। यही हाल न्यूनाधिक रुप से हिंदुओं और ईसाईयों में भी है। सत्य और असत्य, उचित और अनुचित का निर्णय दृष्टिपरक विवेचना से ना करके धर्मथों से होती है। आश्चर्य की बात है कि पढे लिखे यहाँ तक की डाक्टर जाकिर नायक जैसे लोग भी मानते हैं कि मानव का विकास कापियों से ना होके ऐडम और इव की जोडी से 6000 वर्षों पूर्व हुआ। ऐसा अंधविश्वास ना केवल रुढ़िवादिता को बढावा देता है अपितु इससे धार्मिक असहिष्णुता भी बर्हती है। आज के समय कि जरुरत वैज्ञानिक आध्यात्म्वाद कि है जिससे सभी धर्मों के मानने वाले अपनी समानताओं पर ध्यान देंगे नाकी विसंगतियों और मतविरोधों को।

गुरुवार, 22 मार्च 2007

नन्दीग्राम : खेत, सूअर और आदमी

"सभी पशु समान हैं किंतु कुछ पशु दूसरों से ज्यादा समान हैं।"
All animals are equal, but some are more equal than others.

नंदीग्राम के ताजा नरसंहार और पश्चिम बंगाल के औद्योगीकरण पर माकपा के रवैये ने मुझे अंग्रेज लेखक जार्ज ओर्वेल के विश्वप्रसिद्ध उपान्यास "एनिमल फ़ार्म " की इन पंक्तियों की याद दिला दी। यह उपन्यास स्टालिन के रूस के उपर कटाक्ष है।पंचतंत्र की तरह सांकेतिक विधा में लिखी गयी इस कहानी में पशुओं के एक बाड़े की पृष्ठभूमि के माध्यम से स्टालिन स्टाईल के साम्यवाद के दोहरापन का मजेदार वर्णन किया गया है।ये कहानी समझाती है कि साम्यवाद के लुभावने सपनों के सहारे सत्ता हथिया कर साम्यवादी शासक किस तरह जनहित के चोले और राज्य के अधिकार जैसे पदों की आड़ में जनता का शोषण करते हैं, मनुष्यमात्र की समता के सपने किस तरह वही लोग तोडते हैं, जिनसे सबसे ज्यादा आशा रहती है, और जो इनके लिये सबसे ज्यादा संघर्ष करने का दिखावा करते हैं ।

पश्चिम बंगाल में जब साम्यवादी सरकार बनी थी तो तत्कालीन वित्तमंत्री ने कहा था कि हम उद्योगपतियों को चैन से नहीं बैठने देंगे। नतीजा हुआ कि बंगाल जो किसी समय देश का सबसे औद्योगिकृत राज्य था, आज उद्योगों के मामले में फ़िसड्डी है। अब माकपा को औद्योगीकरण की सुध आयी है, तो वह किसी भी कीमत पर उद्योग लगाना चाहती है, चाहे वो कीमत निरपराधों का ही क्यों ना हो। अपनी जरुरत के हिसाब से ना सिर्फ सिद्धांतों को बदला, जाता है अपितु सिद्धांतों की व्याख्या ही बदल जाती है।नक्सलवादी आंदोलन को कम्युनिस्ट सामाजिक-आर्थिक अन्याय कि दें बताते थे और उसे समझाने और कारकों को दूर कराने की बात कहते थे, आज वे उनके दुश्मन बन बैठे हैं और नक्सलवाद को सख्ती से कुचलने की बात कही जा रही है। भोपालगैस काण्ड के चलते डाउ केमिकल को भगाने की बात कराने वाले, नन्दिग्राम में निवेश के लिए उन्ही से गुहार लगाने गए थे। आज उसी जमात-ए-उलेमा-ए-हिंद को साम्प्रदायिक कहा जा रह है जिसके साथ पिछले साल बुश के आने पर माकपा ने मुम्बई में विरोध प्रदर्शन किया था। प्रश्न यह नहीं है कि वह पहले सही थे ये आज, पर क्या उन्हें सुविधानुसार पाले बदलना उनके अवसरवादी चरित्र को उजागर नहीं करता। सबसे बडे साम्यवादी दल होने के बावजूद उनकी विश्वसनीयता सबसे कम है, पर उनकी नीतियों से भारत में साम्यवादी और समाजवादी राजनीति की साख खराब हो रही है।

समाजवाद के महान आदर्श नारों तक ही क्यों रह जाते हैंकुछ लोगों की स्वार्थपरकता समष्टि के हित पर भारी क्यों पड जाती है? स्टालिन के रूस और साम्यवाद के नाम पर अन्यत्र होने वाले अत्याचार यही बताते हैं कि का मनुष्य द्वारा शोषणा किसी व्यवस्था विशेष के फल नहीं हैं अपितु शोषण का ये क्रम तब तक चलता रहेगा जब तक मनुष्यमात्र में मनुष्यता के प्रतिआदर और आदर्शों के प्रतिनिष्ठा नहीं पैदा होतीअगर ब्रिटेन और अमेरिका में औद्योगिक क्रंति के दौरां श्रमिकों के साथ अन्याय हुआ, तो स्टालिं के रूस और छद्मसाम्यवादी चीन के हाथ भी ख़ून से रंगे हुए हैं जार्ज ओर्वेल की यह कहानी स्वार्थसिद्धि के लिये व्यवस्था के दुरुपयोग का शास्त्रिय वर्णन है । जार्ज ओर्वेल ने यह कहानी सोवियत रूस में स्टालिन से प्रभावित होकर लिखी थी, लेकिन आज के परिप्रेक्ष्य में भी यह उतनी ही सही लगाती है।
कहानी शुरु होती है, पशुओं के एक फ़ार्म से जिसके पशु अपने मालिक से इसलिये परेशान रहते हैं कि वो उनसे काम ज्यादा लेता है, लेकिन अपेक्षित बर्ताव नहीं करता है। पशुओं कि सभा होती है जिसका नेतृत्व ओल्ड मेजर(कार्ल मार्क्स से प्रेरित चरित्र) नाम का सुअर करता है, सभा में वह पशुओं को अपने सपने के बारे में बताता है कि एक दिन फर्म से मनुष्य चले जायेंगे और पशु शांति और समरसता से रहेंगे. तीन दिनों बाद ओल्ड मेजर मर जाता है तो स्नोबाल और नेपोलियन नाम के दो सूअर विद्रोह का निश्चय करते हैं. पशुओं में सबसे वृद्ध एक गधा कहता है कि उसने बहुत जिंदगी देखी है और वो जानता है कि अंततः कुछ नहीं बदलेगा, जवान पशु समझते हैं कि गधे के बुढे खून में क्रांति की कमी है और उसा पर ध्याना नहिं देते हैं। सारे पशु इस आशा से लडते हैं कि विद्रोह के बाद साम्यवाद आयेगा, सबको स्वधीनता और समता प्राप्त होगी। नियत समय पर युद्ध शुरु होता है, कुछ पशु शहीद होते हैं, कमांडर सहित कुछ को गोली लगती है लेकिन अंततः मालिक मारा जाता है और फ़ार्मा स्वतंत्र होता है। फ़ार्म का नाम "एनिमल फार्म " रखा जाता है।सारे पशु खुशियां मनाते हैं, भविष्य के लिये सात दिशानिर्देश तय होते हैं, जिनको फ़ार्म के बीचोबीच एक तख्ते पर लिखा जाता है।

सभी दोपाये शत्रु हैं।
सभी चौपाये मित्र हैं।
कोई पशु वस्त्र नहीं पहनेगा।
कोई पशु पलंग पर नहीं सोयेगा।
कोई पशु शराब नहीं पियेगा।
कोई पशु दुसरे पशु की हत्या नहीं करेगा।
सभी पशु समान हैं।

पढने लिखने का कार्य केवल सुअरों को आता था, इसलिये शासन कि जिम्मेदारी उंहे सौंप दी जाती है। यह निश्चय होता है कि आगे से मनुष्यों को फ़ार्म में नहीं घुसने दिया जायेगा और जो आने कि कोशिश करेंगे उंहे मार गिराया जायेगा। फ़ार्म की रक्षा के लिये नेपोलियं कुत्तों कि एक फ़ौज तैयार करता है। ये फ़ौज आंतरिक सुरक्षा का भी ध्यान रखती है। पशुओं में छिपे मनुष्यों के भेदियों को पकडना और उंहे सजा देना इसका मुख्य कार्य रहता है। फ़ार्म के बीचोबीच मालिक का महल रहता है, कुछ पशु इसे अत्याचर की निशानी मान कर गिराना चाहते हैं, पर नेपोलियन ये कह के उंहे रोकता है कि महल का उपयोग पशुओं की भलाई के लिये किया जायेगा। कुछ दिनों बाद महल को प्रशासनिक कार्यालय में बदल दिया जाता है, और सारे सुअरा, जो कि सरकारी काम देखते हैं, महल में रहने लगते हैं। अगली फ़सल के लिये सारे पशु जोरदार मेहनत करते हैं, फ़सल भी काफ़ी अच्छी होती है। फ़सल को गोदाम में रखा जाता है, जिसकी निगरानी सुअर करते हैं। सारे पशुओं को जरुरत के अनुसार अनाज मिलता है। सेब की फ़सल सुअरों के लिये रखी जाती है, क्योकि मानसिक परिश्रम के कारणा उंहे ज्यादा पौष्टिक खाना होता है। गायों का दूध बछडों की बजाय कुत्तों को दिया जाता है, क्योंकि उनकी अच्छी सेहत फ़ार्म कि सुरक्षा के लिये जरुरी है। फ़िर भी पशु "अपने फ़ार्म" के लिये जी जां लगा कर मेहनत करते हैं। फ़ार्म के सबसे मेहनती जीव था - बाक्सर नाम का घोडा . उसे सारे पशुओं से सम्माना मिलता था।

एक दिना नेपोलियन ने सभा बुलाई। सभा में उसने बताया "फ़ार्म के आर्थिक विकास के लिये औद्योगिकरणा कि आवश्यकता है, इसके लिये पवनचक्की लगाने कि जरुरत है।पवंचक्की के लिये एक पहाडी का चयन हुआ है, जानवरों को पहाडी पर पत्थर पहुंचाने के काम में लगना चहिये। जरुरी मशीनों को बाहर से खरीदा जायेगा, और इसके लिये पैदावार बढाने और बचत करने की जरुरत है।" बेचारे जानवर अगले एक वर्ष तक जीतोड मेहनत करते रहे।बाक्सर अकेले कई पशुओं के बराबर काम करता रहा। बचत की जरुरत बता कर पशुओं को अनाज भी कम मिला, लेकिं काम बढता गया। इस दौराना कई जानवर बीमार हुए, कई मर गये, केवल सुअर और कुत्ते दिनों दिना मोटे होते गये।
नेपोलियन की कुत्ता पुलिस कि शक्तियां बढती गयीं। पवनचक्की के लिये जरुरी मशीनों के लिये सुअर मनुष्यों के प्रतिनिधियों से मिलने जाने लगे। मनुष्य भी बंद बग्घियों में आने लगे और पवंचक्की की आड में व्यापार चलता गया।सुअरों के महल में अच्छी शराब, महंगे बिस्तर आदि विलासिता के सामाना भरने लगे। स्नोबाल को नेपोलियन की ये अनैतिक तरीके अच्छे नहिं लगे। उसने जानवरों की सभा बुलाई, और अपना असंतोष व्यक्त किया। कई जानवरों में असंतोष बढता गया। कुछ दिनों बाद नेपोलियन ने सबकी सभा बुलायी और बताया कि "कुछ मनुष्य हमारे फ़ार्म की सफ़लता से जल रहे हैं और फ़ार्म को अस्थिर करने के लिये साजिश रच रहे हैं। हमारे बीच में मनुष्यों के कुछ एजेण्ट हैं, हमें उनसे निपटना होगा।" कुछ पशुओं का कहना था कि फ़ार्म की स्थापना के समय तय किये गये दिशानिर्देशों का पालं नहिं किया जा रहा है।सुअरों को बकी पशुओं के मुकाबले ज्यादा सुविधा मिल रही है, ईत्यादि।।। सारे जानवर बीच वाले तख्ते के पास गये। एक सुअर ने जोर-जोर से पढना शुरु किया। तख्ते पर पहले लिखी सभी लाइनों के साथ नये शब्द जुड गये थे।
कोई पशु पलंग पर चादर के साथ नहीं सोयेगा।
कोई पशु अत्यधिक शराब नहीं पियेगा।
कोई पशु दूसरे पशु कि अकारण हत्या नहीं करेगा।

नेपोलियं गरजा कि उसकी सरकार पर झूठे आरोप लगाये गये हैं, तथा आरोप लगाने वाले मनुष्यों के साथ मिल कर "एनिमल फ़ार्म" को अस्थिर करना चाहते हैं। उसने कनु पर गद्दारी का आरोप लगाकर उसे मौत कि सजा सुनाई। कुत्ता पुलिस के कुत्ते स्नोबाल पर झपट पडे। बेचारा सुअर किसी तरह जान बचा कर भागा । सारे जानवर अवाक होकर यह सब देखते रहे। कुछ दिनों बाद एक तूफ़ान ने पवन चक्की को तबाह कर दिया, नेपोलियन ने अपने सहयोगियों की सहायता से झूठ फैलाया कि इसके पीछे स्नोबाल का हाथ है।बाक्सर ने नया मंत्र रत लिया कि नेपोलियन हमेशा सही कहता है।
गर्मी के समय में भी पवनचक्की का काम चलता रहा। अत्यधिक परिश्रम और कुपोषणा के चलते घोडे कि हालत दिनों गिना खराब होती गयी। पहाडी पर एक बडा पत्थर ले जाने के प्रयास में वह लुढक पडा। सारे जानवर आसपास जुट गये। कुछ देर बाद शहर से एक गाडी फ़ार्म में पहुंची। पशुओं को बताया गया कि घोडे को ईलाज के लिये शहर ले जाया जायेगा। घोडे को गाडी में लादा जाता है। गधे की नजर गाडी पर पडती है। उपर मोटे अक्षरों में लिखा रहता है-"कसाईघर"।
सूअरों का अत्याचार बढ़ता जाता है। पशुओं पर प्रतिबंध लगते हैं और उनकी निगरानी की जाती है। तख्ते पर सात संकल्पों की जगह एक पंक्ति ले लेती है।
"सभी पशु समान हैं, किंतु कुछ पशु दूसरों से ज्यादा समान हैं।"
All animals are equal, but some are more equal than others

धीरे धीरे फ़ार्म में मनुष्यों का आना जाना बढ जाता है, सुअर उनके साथ बैठ के खाने पीने लगते हैं।कुछ सालों मे सूअर मनुष्यों की तरह दो पैरों पर चलना सीख लेते हैं। उन्ही की तरह के कपडे और कुर्सी ओकर बैठ कर खाने लगते हैं। गधा देखता है कि सुअरों के चेहरे ईंसानों में बदलने लगे हैं, और उनकी हंसी आदमी की हंसी से मिल रही है। पशु अब सूअरों और मनुष्यों में फर्क नहीं कर पाते हैं।

सोमवार, 19 मार्च 2007

और अब विपिन भाई भी चिट्ठा लिखेंगे.

पिछले कई दिनों से विपिन बाबू हिंदी मे ब्लोग लिखना चाहते थे, पर इनका सोचना था कि इन्टरनेट पर हिंदी में लिखना काफी मुश्किल काम होगा। अब जब गुगल ने ब्लॉगर के लिए हिंदी transliteration कि सुविधा दे दीं है तो मुझे लगा इन्हें भी शुरू हो जाना चाहिऐ। आखिरकार आज जाके इन्होने भी अपनी बगिया खोल डाली। और अब शायद कुछ लिखेगा भी। मैंने सुना है कि ये काफी अच्छी कविता करता है, पर मुझे अब तक सुनने का मौका नहीं मिला। लोग बताते हैं कि इसकी कलम में काफी पीड़ा है , इसलिये कमजोर दिलवालों को सीधे सीधे पढने से मना किया जाता है।

निफ्ट में प्रवेश पाने के बाद से ये कक्षा में और परीक्षा में मेरे पीछे बैठता हैं, ( इसका और मेरा अनुक्रमांक आगे-पीछे है). पिछले चार सालों से हम लोगों का कमरा भी अगल-बगल है पर फिर भी हमारे सहयोग की सीमा परीक्षा-हॉल तक कभी नहीं पहुंच सकी। ये तो अत्ठी फोड़ गया पर मैं छक्की और सत्ती के बीच झूलता रहता हूँ। खैर अपना अपना कर्म है।